आखिर वैज्ञानिको को कोरोना की दवाई बनाने में इतना समय क्यों लग रहा है, जाने
जब वैज्ञानिक कोई टीका खोजते हैं तो वो टीका स्वयं किसी विषाणु से नहीं लडता बल्कि वो खुद विषाणुओं की बहुत ही कम मात्रा होती है जिसे शरीर में पहुँचाया इसलिये जाता है जिससे हमारे प्रतिरक्षा तंत्र की श्वेत रूधिर कणिकायें उन्हें देखकर ये पहचान सकें कि ये विषाणु शरीर के बाहर से आया है जो शरीर को नुक़सान पहुँचा सकता है।

रक्त कणिकायें विषाणु की संरचना, आकार तथा रंग जैसे गुणों से ही उसकी पहचान करना सीखती हैं। जब ये इम्यून सिस्टम विषाणु की पहचान शरीर के शत्रु के रूप में करता है तो उन्हे नष्ट करने के लिये स्वयं ही एंटीबॉडी (एक विशेष प्रकार के प्रोटीन) का निर्माण करता है और उसी की सहायता से विषाणु को नष्ट करता है।
एक बार रूधिर कणिकायें इन्हे पहचान गयीं तो जीवन में फिर कभी भी जब ये वायरस शरीर में आता है तो ये तुरंत उनपर आक्रमण करती हैं।
इस प्रकार टीके का मुख्य उद्देश्य प्रतिरक्षा प्रणाली को वायरस की पहचान करवाना होता है।
परंतु कोरोना के विषय में सबसे बड़ी समस्या है कि ये समय समय पर रंग, रूप तथा आकार बदल लेता है जिससे रक्त कणिकाएँ पहचानने में असफल हो जाती हैं।
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